*भारतीय ज्ञान में सन्निहित है वैश्विक शान्ति के बीज तत्व: प्रो. दुर्ग सिंह चौहान*रोहित सेठ*०एस०एम०एस०, वाराणसी में दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का हुआ शुभारम्भ**०’सतत विकास के लिए भारतीय ज्ञान परम्परा’ पर विद्वानों ने व्यक्त किये भारतीय ज्ञान केंद्रित विचार**०कॉन्फ्रेंस के पहले दिन देश-विदेश से आये लगभग २०० प्रतिभागियों ने प्रस्तुत किये शोध-पत्र* वाराणसी, 4 मार्च: एस०एम०एस०, वाराणसी में आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का शुभारम्भ हुआ । दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का मुख्य विषय ’सतत विकास के लिए भारतीय ज्ञान परम्परा’ है. अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के उदघाटन सत्र में बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित ए० पी० जे० अब्दुल कलाम तकनीकी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो० डी० एस० चैहान ने कहा कि प्राचीन सनातन वैदिक परम्परा सदैव से पर्यावरणीय व्यवस्था के अनुकूल ज्ञान के सम्प्रेषण पर केंद्रित रही है । वैदिक मन्त्रों में पर्यावरण के संरक्षण को प्रोत्साहित करने के अनेक उदाहरण मिलते हैं । प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में निहित लोकहित के संदर्भों को रेखांकित करते हुए प्रो० चैहान ने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को रोकने के लिए ही इन संसाधनों में शान्ति तत्व का आह्वाहन किया गया है । वैदिक मन्त्र ’द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः’ का उद्धरण देते हुए प्रो० चैहान ने कहा कि आज ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में समय की माँग है कि न सिर्फ वैदिक ग्रंथमाला में सन्निहित तत्वों का समकालीन परिप्रेक्ष्य में खोज की जाय बल्कि इनको पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करने पर भी जोर दिया जाय । उन्होंने कहा कि प्राचीन ज्ञान को डिकोड करना बेहद आवश्यक है लेकिन इसके साथ ही जरूरी है कि आप जिस भी प्रोफेशन में रहें वहाँ ईमानदार और कुशल रहें क्योंकि यही प्राचीन भारतीय सभ्यता और ज्ञान का सार है । सतत विकास के महत्व को चिन्हित करते हुए प्रो० सिंह ने कहा कि सामूहिक विकास ही सही मायनों में सतत विकास का मापदंड है। आज विश्व में काम, क्रोध, लोभ की वृद्धि, परमाणु हथियारों के प्रयोग करने जैसी खबरों के मूल में चेतना का संज्ञा शून्य होना ही है, ऐसे में भारतीय ज्ञान परम्परा से ही वापस वैश्विक शान्ति स्थापित की जा सकती है । कॉन्फ्रेंस में विशिष्ट अतिथि सांस्कृतिक भूगोल और विरासत अध्ययन विभाग, बी० एच० यू० के पूर्व अध्यक्ष प्रो० राणा पी० बी० सिंह ने कहा कि सनातन परम्परा में शिव सिर्फ ईश्वर नहीं हैं बल्कि एक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हैं । वाराणसी शहर की भौगोलिक मैपिंग के बारे में बताते हुए प्रोफेसर सिंह ने कहा कि यह शहर रिंगनुमा और तीन जगह पर मुड़ा हुआ है । अब यदि इन तीरों को तीर बनाकर नीचे गंगा तट से जोड़ा जाय तो यह त्रिशूलनुमा होगा, यानी जो पुराणों में कहा गया है वह भौगोलिक रूप से बिलकुल सटीक है । उन्होंने बताया कि भारत की तमाम प्राचीन धरोहरों के बारे में भौगोलिक मैपिंग और जियो मैग्नेटिक विज्ञान द्वारा यह पता लगाया जा चुका है कि दरअसल इन धरोहरों में समूचा कॉस्मिक विज्ञान अंतर्निहित है । बेंगलुरु स्थित चाणक्य विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विनयचन्द्र बी० के० ने कहा कि भारत की प्राचीन ज्ञान परम्परा संगीत, नृत्य, साहित्य, कला, आयुर्वेद, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान सहित सभी क्षेत्रों में समृद्ध है । भाषाविज्ञान की उत्पत्ति को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि पाणिनि के ’अष्टाध्यायी’ को इसका मूल माना जाता है । आज तमाम पश्चिमी भाषाई विमर्श के केंद्र में यही ग्रंथ है । उन्होंने भारत के सकारात्मक मनोविज्ञान की सराहना करते हुए कहा कि स्वस्थ जीवनशैली के सभी आयाम भारतीय ज्ञानशास्त्रों में सदियों पहले से उल्लेखित हैं । अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में वाराणसी के बिशप युग्ने जोसफ ने भारतीय ज्ञान परम्परा को समग्रता की संज्ञा देते हुए कहा कि नैतिकता, आध्यात्मिकता और आदर का भाव इस सनातन परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहा है । उन्होंने ज्ञान को आत्म-मूल्यांकन की प्रक्रिया बताया । जी० बी० पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, अहमदाबाद के निदेशक प्रोफेसर बद्रीनारायण भारतीय ज्ञान परम्परा महज सिद्धांत या दर्शन नहीं बल्कि यह जीवन जीने की कला का एक सुन्दर प्रारूप है । उन्होंने बताया कि लोकहित, लोकचिंता, लोकरचना यानी लोक ही इस ज्ञान परम्परा के केंद्र में है । उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि हम अपने आप को पश्चिम की गिरफ्त से दूर कर उपनिवेशित करें और सनातनी ज्ञान परम्परा के अनुसार दैनिक गतिविधियों का संचालन करें, जो सहजता से परिपूर्ण है ।विशिष्ट अतिथि उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के सदस्य सी० एम० सिंह ने कहा कि आधुनिक विज्ञान को वैदिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य से देखना जरूरी है । दरअसल वेदों के अनुवाद को सिर्फ धार्मिक क्रिया-कलापों के संबंध में ही देखा गया है । बीसवीं सदी में दो महान सिद्धांत सामने आये रिलेटिविटी का सिद्धांत और क्वांटम मैकेनिज्म दोनों का स्थान और समय से गहरा संबंध है । यही स्थान और समय की जुगलबंदी का रहस्य वैदिक ग्रंथों में भी मिलता है जिसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की बात कही गयी है । बतौर विशिष्ट अतिथि दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर बी० पी० सिंह ने कहा कि संस्कृति के बिना मानवता के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती । प्राचीन भारतीय ज्ञान धारा को विश्व के हित में बताते हुए प्रोफेसर सिंह ने बताया कि ’वसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया’ की धारणा भारतीय ज्ञान को वैश्विक बनाते हैं । उन्होंने कहा कि ज्ञान का वैश्विक दृष्टिकोण ही इस प्राचीनतम सभ्यता के आज भी जीवित रहने का कारण रहा है । इस अवसर पर सतत विकास की भारताीय ज्ञान परम्परा पर आधारित स्मारिका का भी विमोचन किया गया । उदघाटन सत्र का संचालन डॉ० अभय सिंह चैहान ने व धन्यवाद ज्ञापन प्रो० अविनाश चंद्र सुपकर ने दिया। दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के पहले दिन तीन अलग अलग तकनीकी सत्रों का आयोजन भी हुआ जिसमें देश-विदेश से आये लगभग 200 प्रतिभागियों ने शोध-पत्र प्रस्तुत किया। इस अवसर एस०एम०एस०, वाराणसी के अधिशासी सचिव डॉ० एम० पी० सिंह, कुलसचिव श्री संजय गुप्ता, कॉन्फ्रेंस के समन्वयक प्रो० अविनाश चंद्र सुपकर, प्रो० संदीप सिंह, प्रो० राजकुमार सिंह सहित समस्त अध्यापक और कर्मचारी गण उपस्थित रहे ।
भारतीय ज्ञान में सन्निहित है वैश्विक शान्ति के बीज तत्व: प्रो. दुर्ग सिंह चौहान*
रोहित सेठ रिपोर्ट
*०एस०एम०एस०, वाराणसी में दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का हुआ शुभारम्भ*
*०’सतत विकास के लिए भारतीय ज्ञान परम्परा’ पर विद्वानों ने व्यक्त किये भारतीय ज्ञान केंद्रित विचार*
*०कॉन्फ्रेंस के पहले दिन देश-विदेश से आये लगभग २०० प्रतिभागियों ने प्रस्तुत किये शोध-पत्र*
वाराणसी, 4 मार्च: एस०एम०एस०, वाराणसी में आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का शुभारम्भ हुआ । दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का मुख्य विषय ’सतत विकास के लिए भारतीय ज्ञान परम्परा’ है. अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के उदघाटन सत्र में बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित ए० पी० जे० अब्दुल कलाम तकनीकी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो० डी० एस० चैहान ने कहा कि प्राचीन सनातन वैदिक परम्परा सदैव से पर्यावरणीय व्यवस्था के अनुकूल ज्ञान के सम्प्रेषण पर केंद्रित रही है । वैदिक मन्त्रों में पर्यावरण के संरक्षण को प्रोत्साहित करने के अनेक उदाहरण मिलते हैं । प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में निहित लोकहित के संदर्भों को रेखांकित करते हुए प्रो० चैहान ने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को रोकने के लिए ही इन संसाधनों में शान्ति तत्व का आह्वाहन किया गया है । वैदिक मन्त्र ’द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः’ का उद्धरण देते हुए प्रो० चैहान ने कहा कि आज ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में समय की माँग है कि न सिर्फ वैदिक ग्रंथमाला में सन्निहित तत्वों का समकालीन परिप्रेक्ष्य में खोज की जाय बल्कि इनको पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करने पर भी जोर दिया जाय । उन्होंने कहा कि प्राचीन ज्ञान को डिकोड करना बेहद आवश्यक है लेकिन इसके साथ ही जरूरी है कि आप जिस भी प्रोफेशन में रहें वहाँ ईमानदार और कुशल रहें क्योंकि यही प्राचीन भारतीय सभ्यता और ज्ञान का सार है । सतत विकास के महत्व को चिन्हित करते हुए प्रो० सिंह ने कहा कि सामूहिक विकास ही सही मायनों में सतत विकास का मापदंड है। आज विश्व में काम, क्रोध, लोभ की वृद्धि, परमाणु हथियारों के प्रयोग करने जैसी खबरों के मूल में चेतना का संज्ञा शून्य होना ही है, ऐसे में भारतीय ज्ञान परम्परा से ही वापस वैश्विक शान्ति स्थापित की जा सकती है ।
कॉन्फ्रेंस में विशिष्ट अतिथि सांस्कृतिक भूगोल और विरासत अध्ययन विभाग, बी० एच० यू० के पूर्व अध्यक्ष प्रो० राणा पी० बी० सिंह ने कहा कि सनातन परम्परा में शिव सिर्फ ईश्वर नहीं हैं बल्कि एक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हैं । वाराणसी शहर की भौगोलिक मैपिंग के बारे में बताते हुए प्रोफेसर सिंह ने कहा कि यह शहर रिंगनुमा और तीन जगह पर मुड़ा हुआ है । अब यदि इन तीरों को तीर बनाकर नीचे गंगा तट से जोड़ा जाय तो यह त्रिशूलनुमा होगा, यानी जो पुराणों में कहा गया है वह भौगोलिक रूप से बिलकुल सटीक है । उन्होंने बताया कि भारत की तमाम प्राचीन धरोहरों के बारे में भौगोलिक मैपिंग और जियो मैग्नेटिक विज्ञान द्वारा यह पता लगाया जा चुका है कि दरअसल इन धरोहरों में समूचा कॉस्मिक विज्ञान अंतर्निहित है ।
बेंगलुरु स्थित चाणक्य विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विनयचन्द्र बी० के० ने कहा कि भारत की प्राचीन ज्ञान परम्परा संगीत, नृत्य, साहित्य, कला, आयुर्वेद, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान सहित सभी क्षेत्रों में समृद्ध है । भाषाविज्ञान की उत्पत्ति को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि पाणिनि के ’अष्टाध्यायी’ को इसका मूल माना जाता है । आज तमाम पश्चिमी भाषाई विमर्श के केंद्र में यही ग्रंथ है । उन्होंने भारत के सकारात्मक मनोविज्ञान की सराहना करते हुए कहा कि स्वस्थ जीवनशैली के सभी आयाम भारतीय ज्ञानशास्त्रों में सदियों पहले से उल्लेखित हैं ।
अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में वाराणसी के बिशप युग्ने जोसफ ने भारतीय ज्ञान परम्परा को समग्रता की संज्ञा देते हुए कहा कि नैतिकता, आध्यात्मिकता और आदर का भाव इस सनातन परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहा है । उन्होंने ज्ञान को आत्म-मूल्यांकन की प्रक्रिया बताया । जी० बी० पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, अहमदाबाद के निदेशक प्रोफेसर बद्रीनारायण भारतीय ज्ञान परम्परा महज सिद्धांत या दर्शन नहीं बल्कि यह जीवन जीने की कला का एक सुन्दर प्रारूप है । उन्होंने बताया कि लोकहित, लोकचिंता, लोकरचना यानी लोक ही इस ज्ञान परम्परा के केंद्र में है । उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि हम अपने आप को पश्चिम की गिरफ्त से दूर कर उपनिवेशित करें और सनातनी ज्ञान परम्परा के अनुसार दैनिक गतिविधियों का संचालन करें, जो सहजता से परिपूर्ण है ।
विशिष्ट अतिथि उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के सदस्य सी० एम० सिंह ने कहा कि आधुनिक विज्ञान को वैदिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य से देखना जरूरी है । दरअसल वेदों के अनुवाद को सिर्फ धार्मिक क्रिया-कलापों के संबंध में ही देखा गया है । बीसवीं सदी में दो महान सिद्धांत सामने आये रिलेटिविटी का सिद्धांत और क्वांटम मैकेनिज्म दोनों का स्थान और समय से गहरा संबंध है । यही स्थान और समय की जुगलबंदी का रहस्य वैदिक ग्रंथों में भी मिलता है जिसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की बात कही गयी है । बतौर विशिष्ट अतिथि दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर बी० पी० सिंह ने कहा कि संस्कृति के बिना मानवता के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती । प्राचीन भारतीय ज्ञान धारा को विश्व के हित में बताते हुए प्रोफेसर सिंह ने बताया कि ’वसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया’ की धारणा भारतीय ज्ञान को वैश्विक बनाते हैं । उन्होंने कहा कि ज्ञान का वैश्विक दृष्टिकोण ही इस प्राचीनतम सभ्यता के आज भी जीवित रहने का कारण रहा है ।
इस अवसर पर सतत विकास की भारताीय ज्ञान परम्परा पर आधारित स्मारिका का भी विमोचन किया गया । उदघाटन सत्र का संचालन डॉ० अभय सिंह चैहान ने व धन्यवाद ज्ञापन प्रो० अविनाश चंद्र सुपकर ने दिया। दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के पहले दिन तीन अलग अलग तकनीकी सत्रों का आयोजन भी हुआ जिसमें देश-विदेश से आये लगभग 200 प्रतिभागियों ने शोध-पत्र प्रस्तुत किया। इस अवसर एस०एम०एस०, वाराणसी के अधिशासी सचिव डॉ० एम० पी० सिंह, कुलसचिव श्री संजय गुप्ता, कॉन्फ्रेंस के समन्वयक प्रो० अविनाश चंद्र सुपकर, प्रो० संदीप सिंह, प्रो० राजकुमार सिंह सहित समस्त अध्यापक और कर्मचारी गण उपस्थित रहे ।
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